रविवार, 16 अक्तूबर 2011

कुछ याद आया है…


अक्सर याद आता है वो दिन,
जब मेरे कमरे की बालकनी में,
बैठा हुआ मैं, देख रहा था,
तुम्हे बारिश में भीगता हुआ|
मुझे जुकाम था, मैं बाहर नहीं आया था,
और तुमने मुझे देखा नहीं, हमेशा की तरह,
बारिश तुमपे गिरती रही फूलों सी,
और भीगता रहा मैं बंद कमरे में|
मेरी नज़र में बस गया,
वो तेरा भीगा सा साया था |
उस रात फिर एक बार,
मुझे जोरों का बुखार आया था||
 
rain

अगले दिन तुम, शायद गलती से,
गुजरी थी मेरी गली से,
मैं फिर बैठा था वहीँ बालकनी में,
पायल नहीं थीं, पैरों में तुम्हारे,
साज़ पायल की ही गूंजी थी मेरे कानों में,
जब भी बताता हूँ दोस्तों को अपने,
मुझपे मुहावरे कसते हैं, कहते हैं,
करा इलाज़ किसी हकीम से अपना,
बारिश में तो तेरे कान बजते हैं||
 

मैं हर दिन गुज़रता था उसी गली से,
हर कोने को अपनी आँखों से छूता हुआ,
जहाँ से तुम गुजरी थीं,
तुम मुझे महसूस होती थीं हर बार,
कभी खुद से ही कह बैठा था मैं कि,
गुजर इन गलियों से जरा, मेरे दिल धीरे-धीरे,
कभी ठहरा था तेरा महबूब दो पल को यहाँ|
 

आज सालों बाद ये फ़साना याद आया है,
पाता नहीं क्यूँ मुझे ये सब फिर याद आया है,
होता है अक्सर ऐसा भी,
कि ना हो कुछ गम फिर भी,
रोने का जी चाहे,
इस दिल के नगीने को खोने का जी चाहे,
फकत एक रात काफी है, सब कुछ तोड़ देने को,
एक जाम रोशन है, जो सब बंधे हुए है……
 

--देवांशु

2 टिप्‍पणियां:

  1. कि ना हो कुछ गम फिर भी,
    रोने का जी चाहे, .. hmm hota h aisa bhi...

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  2. गुजर इन गलियों से जरा, मेरे दिल धीरे-धीरे,
    कभी ठहरा था तेरा महबूब दो पल को यहाँ|

    WAAH BAHUT MASOOM AUR PYARI SI RACHNA...BADHAI

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